यह कविता रामधारी सिंह दिनकर जी ने देश की हालात को देखकर लिखी थी , 1947 में देश आजाद होने के बाद भी देश में बहुत दंगे हो रहे थे , वही सब मध्य नजर रखते हुए रामधारी सिंह दिनकर जी ने यह कविता लिखी – समर शेष है ।



                               समर शेष है


धनुष की डोरी को ढीला करो, कुण्डली खोलो,

किसने कहा कि युद्ध का समय चला गया, शांति से बोलो?

किसने कहा और वारी के शरीर के साथ हृदय को मत मिलाओ,

भुवन का भाग कुमकुम, कुसुम, केसर से भर दें?

कुमकुम? किसको? मैं किसके लिए कोमल गीत गाऊं?

पीड़ित आंखों के सामने भूखा भारत।


हे फूलों की रंग-बिरंगी लहर पर उतरने वालों!

हे रेशमी नगर वासियों! ओह छवि प्रेमियों!

पूरे देश का हाल है, दिल्ली का हाल बुरा है,

दिल्ली में उजाला है, बाकी भारत में अंधेरा है।

मखमली घूंघट से परे, फूलों के पार,

जैसा कि यह खड़ा है, 

आज भी दुनिया एक खदान की तरह है।


जो दुनिया अब तक नहीं पहुंची वो एक किरण है

जहां क्षितिज शून्य है, फिर भी एम्बर एक काला रंग है

देखिए कहां का नजारा आज भी दिल को झकझोर देता है

माँ को शर्म नहीं आती और बच्चे को क्षीर नहीं मिलता।

अकाजी को देख लोग हैरान

रास्ते में सात साल बीत गए, कहां फंसी हैं स्वराज?


कहां फंसी है स्वराज? दिल्ली बोलो! तुम्हारा क्या कहना है?

तुम रानी बन गई हो, लोगों को दर्द क्यों होता है?

किसने सबके भाग्य को अपने करों में दबा रखा है?

विभा जो उतरी थी, बंदिनी, बताओ किस घर में।


समर शेष है, ये रौशनी जेल से छूटेगी

और नहीं तो तुम पापी हो! महावजरा टूट जाएगा।

समर शेष है, कि स्वराज को हकीकत बनाना है।


जिसको यह भरोसा है, उसे सतवारी पहुंचना ही है

धारा के मग में कई पहाड़ खड़े हैं

गंगा के मार्ग को रोककर अड़े हुए इंद्र के गज।

उन्हें बताएं कि अगर आप उनके आगे झुकेंगे तो आपको दुनिया में सफलता मिलेगी।

अड़े रहे तो ऐरावत पत्तों से बह जाएगा।


समर शेष है ,गंगा को स्वतंत्र रूप से बहने दो,

चोटियों को डूबने दो और मुकुट बहने दो,

चट्टानी उच्च भूमि? तो तोड़ दो

स्तर को पछाड़े बिना हम गर्मी की धरती को नहीं छोड़ेंगे।


समर शेष है, रोशनी के बाणों की बारिश करें,

असमानता की काली जंजीर टुकड़े-टुकड़े हो गई है।


समर शेष है, वह समय है धर्म की शपथ लेने का,

देश में गांधी और जवाहर लाल,


टाइमर बेटा ये डाकू कहीं कोई शरारत न कर दे,

सावधान रहें, देश भर में खड़ी है गांधी की सेना,

बलिदान के साथ भी बलिदान! स्नेह का यह कोमल व्रत रखें,

मंदिर और मस्जिद दोनों पर डोरी बांधें।


समर शेष है, पाप का दोषी शिकारी ही नहीं,

तटस्थ रहने वालों के अपराध समय लिखेगा।


                           - रामधारी सिंह दिनकर